Friday 11 February 2011

कभी आदि तो कभी अंत है


पतझड़ में जब पेड़ से पत्ते

सूख कर झड जाते है

गिर के धरा पर न जाने वो

फिर कहाँ उड़ जाते है

हरे-भरे लहराते वृक्ष ये

ठूंठ से बन जाते है,

कभी वृक्ष ये फूल ये पत्ते

ख़ुशी से लहराते है

कभी कष्टों की आंधी में ये

टूट के बिखर जाते है

कभी ख़ुशी है कभी उदासी

सीख हमें दे जाते है

हर हालत में डटे रहो

हर पल ये समझाते है

फिर से सूने वृक्षों पर जब

नव कोंपल खिल जाता है

बसंत के आते ही प्रकृति को

नव जीवन मिल जाता है

कुछ खोकर के कुछ पाना है

यही तो जग का नियम है

कभी धूप तो कभी छाँव है

इसी का नाम तो जीवन है

जीवन का मौसम भी यूँही

पतझड़ तो कभी बसंत है

यही सृष्टी की सच्चाई है

कभी आदि तो कभी अंत है

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