Friday 11 February 2011

कभी हमसे बेवफाई तुम ना करना

आज बैठे है पलके बिछाये

कल न मिले तो गम ना करना

आज वफ़ा करते है तुमसे

कल न करे तो दम ना भरना

आज देखते राह तुम्हारी

कल न रुके तो गम ना करना

आज नेह के दीप जले है

कल ये उजाला कम नाकरना

आज बसे है आँखों में हम

कल अश्को में बहा के नम ना करना

आज मिलन की चाह है तुमसे

कल बिछड़ गए तो सितम ना करना

जहाँ रहो खुश रहो मगर

कभी हमसे बेवफाई तुम ना करना

कभी आदि तो कभी अंत है


पतझड़ में जब पेड़ से पत्ते

सूख कर झड जाते है

गिर के धरा पर न जाने वो

फिर कहाँ उड़ जाते है

हरे-भरे लहराते वृक्ष ये

ठूंठ से बन जाते है,

कभी वृक्ष ये फूल ये पत्ते

ख़ुशी से लहराते है

कभी कष्टों की आंधी में ये

टूट के बिखर जाते है

कभी ख़ुशी है कभी उदासी

सीख हमें दे जाते है

हर हालत में डटे रहो

हर पल ये समझाते है

फिर से सूने वृक्षों पर जब

नव कोंपल खिल जाता है

बसंत के आते ही प्रकृति को

नव जीवन मिल जाता है

कुछ खोकर के कुछ पाना है

यही तो जग का नियम है

कभी धूप तो कभी छाँव है

इसी का नाम तो जीवन है

जीवन का मौसम भी यूँही

पतझड़ तो कभी बसंत है

यही सृष्टी की सच्चाई है

कभी आदि तो कभी अंत है

प्रकृति का प्रतिबिम्ब है नारी


सूरज सी तपती है नारी

गगन सी झुकती है नारी

पवन सी चलती है नारी

प्रकृति का प्रतिबिम्ब है नारी

गंगा सी छलकती है नारी

फूलों सी महकती है नारी

बादल सी बरसती है नारी

प्रकृति का प्रतिबिम्ब है नारी

धरती सी सहती है नारी

वृक्षों सी फलती है नारी

धूप-छाँव सी ढलती नारी

प्रकृति का प्रतिबिम्ब है नारी

शूलो से गुज़रती है नारी

रंगों सी निखरती है नारी

खुशबू सी बिखरती है नारी॥

प्रकृति का प्रतिबिम्ब है नारी

बातें तो होती है बातें

बातें तो होती है बातें

इधर की बातें उधर की बातें

बिन हवा उड़ जाती बातें,

महफ़िल में रंग जमाती बातें

अच्छी हो या बूरी बातें

...ज़ुबा का स्वाद बढ़ाती बातें,

रस ले-लेकर होती बातें

जब किसी की आती बातें,

कौन बूरा है कौन भला है

ये निर्णय सुनाती बातें,

बिना लक्ष्य की,बिना अर्थ की

बे- सिरपैर की होती बातें,

जीवन में कुछ लक्ष्य है जिनके

वक़्त न उनका गंवाती बातें.....

गणतंत्र


हक़ छीन के जनता का

क्या गणतंत्र मनाएंगे ?

गणतंत्र की परिभाषा को

कब समझ सब पायेंगे ?

राज नेताओ की दोहरी नीति

कैसे अन्याय मिटायेंगे ?

जनहित के दावे करते है

क्या वादों को निभाएंगे ?

महंगाई ने बजट बिगाड़ा

देश को कैसे चलाएंगे ?

दो वक़्त जों मिले न रोटी

तो क्या गणतंत्र बचायेंगे ?

इन सवालो में उलझे है

जवाब कहाँ से लायेंगे ?

आज़ादी के अस्तित्व का

स्वर्णिम काल कहाँ से लायें...

बंधन टूट गए


उसने जब हमको तडफाया तो हम टूट गए

फिर जब उसने टूट के चाहा तो हम रूठ गए,

ना वो भूले ना हम भूले मगर, ख़ामोशी से ,

प्रीत और विश्वास के बंधन धीरे-धीरे टूट गए

'' रैन''